
न्यूज़ चक्र की ‘धड़कन’ सीरीज में पढ़िए, शिक्षा व समाज से जुड़ी शख्सियत के संघर्ष की कहानी
कभी-कभी किसी व्यक्ति की जीवन यात्रा सिर्फ़ उसकी नहीं होती, बल्कि पूरे समाज के लिए प्रेरणा बन जाती है। “धड़कन” कार्यक्रम में जब शिक्षा और समाज सेवा से जुड़ी जानी-पहचानी शख़्सियत, एडवोकेट अशोक कुमार बंसल ने अपने जीवन के पन्ने खोले, तो लगा मानो संघर्ष, साहस और सेवा की एक जीवंत गाथा हमारे सामने साकार हो उठी।

कहानी शुरू होती है साल 1947 से — जब बँटवारे की आँधी में लाखों परिवार उजड़ गए, लेकिन उम्मीद और हिम्मत ने किसी को हारने नहीं दिया। ऐसे ही एक विस्थापित परिवार में जन्म लिया उस बच्चे ने, जिसने आगे चलकर शिक्षा की मशाल जलाई। पिता हंसराज महज़ पंद्रह वर्ष की उम्र में जिम्मेदारियों का बोझ उठाने लगे थे। जीवन की कठिनाइयों ने उन्हें मजबूर किया कि वे चाय की एक छोटी सी दुकान के सहारे परिवार का पेट पालें। हालात कठिन थे, पर आत्मसम्मान और श्रम का मूल्य कभी नहीं भूले।

किस्मत ने उस परिवार को और भी परखा, जब 1964 में मात्र 33 वर्ष की आयु में हंसराज जी का देहांत हो गया। उस वक्त घर के नन्हे कंधों पर आ पड़ी जिम्मेदारियों का बोझ। दो बेटे—सत्यनारायण और अशोक—ने पढ़ाई के साथ घर की चाय की दुकान भी संभाली। मुश्किलें बहुत थीं, पर सपने ज़िंदा थे। संघर्षों के बीच भी अशोक ने कोटपूतली के राजकीय सरदार स्कूल से अपनी शिक्षा जारी रखी। उन दिनों में शायद उनके पास सुविधाएँ नहीं थीं, पर इरादे बहुत मजबूत थे।

समय बीतता गया, और अशोक बंसल ने तय किया कि जो उन्होंने संघर्ष में सीखा है, उसे समाज को लौटाना है। उन्होंने शिक्षा को समाज परिवर्तन का आधार माना। इसी विचार ने जन्म दिया हंस इंटरनेशनल स्कूल को — 1996 में। यह सिर्फ़ एक स्कूल नहीं था, बल्कि उनके पिता की मेहनत, परिवार की आस्था और समाज की उन्नति का प्रतीक था। उन्होंने देखा कि हमारे आसपास कितने बच्चे हैं जो संसाधनों की कमी के कारण अपनी प्रतिभा को उजागर नहीं कर पाते। उस सोच ने उन्हें प्रेरित किया कि शिक्षा का अधिकार हर बच्चे तक पहुँचे, चाहे वह किसी भी वर्ग या परिस्थिति से आता हो।

अशोक बंसल की दृष्टि सिर्फ़ शिक्षा तक सीमित नहीं रही। उन्होंने समाज सेवा को भी अपना ध्येय बनाया। नगर परिषद के पार्षद बनकर सफ़ाई, स्वास्थ्य और नागरिक सुविधाओं के क्षेत्र में कई ठोस पहलें की। उनका मानना है कि सेवा का असली अर्थ तब है जब समाज के हर वर्ग को उसका लाभ मिले। वरिष्ठ व्यक्तित्वों के मार्गदर्शन में, खासकर पूर्व विधायक स्व. मुक्तिलाल मोदी के सानिध्य में उन्होंने शहर के विकास में योगदान दिया। उनके लिए समाज सेवा केवल एक काम नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य है।
आज जब अशोक कुमार बंसल अपने जीवन की यात्रा को पीछे मुड़कर देखते हैं, तो हर मोड़ पर संघर्ष की तपिश और सेवा की सुगंध महसूस करते हैं। 1947 का विस्थापन, 1964 का पारिवारिक आघात, और उसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान—इन सबने मिलकर एक ऐसी प्रेरक कहानी रची है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल है।
अशोक बंसल का संदेश बहुत स्पष्ट है—“हालात कितने भी कठिन हों, शिक्षा कभी मत छोड़िए। यही जीवन का सबसे बड़ा हथियार है। और जब आप सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ें, तो अपने साथ समाज को भी ऊपर उठाइए।”

“धड़कन” जैसे कार्यक्रमों की असली खूबसूरती यही है कि वे उन दिलों की धड़कन सुनते हैं, जो दूसरों के लिए धड़कते हैं। अशोक बंसल की कहानी यह साबित करती है कि संघर्ष इंसान को तोड़ता नहीं, बल्कि उसे नया आकार देता है।
आज उनका स्कूल न सिर्फ़ शिक्षा का केंद्र है, बल्कि एक विचारधारा का प्रतीक है—वो विचार कि इंसान चाहे कहीं से भी शुरू करे, अगर उसके भीतर सेवा और शिक्षा के प्रति समर्पण है, तो वह ज़रूर कुछ बदल सकता है।
सचमुच, अशोक बंसल जैसे लोग इस समाज की “धड़कन” हैं, जो हमें यह याद दिलाते हैं कि असली सफलता वही है जो दूसरों के जीवन में उजाला भर दे।
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